कश्मीर फाइल्स की रिलीज से जो भारत के समाज की – खासकर हिन्दू समाज के कुछ वर्गों की – जो नफरत सामने आ रही है वो आज नहीं पैदा हुई है. ना ही वो 2014 में पैदा हुई. 2017 के एक नेशनल सर्वे में सिर्फ 8% भारतियों ने यह कहा था की कश्मीर में मिलिट्री ज़ोर का इस्तेमाल कम किया जाना चाहिए, और लगभग 70% भारतियों ने कहाँ था की भारत की सेना को और ज़ादा बल और हिंसा का इस्तेमाल करना चाहिए. ये पुलवामा के पहले और बुरहान वानी की मौत के 2 साल बाद की बात है – जब भारत की सेना पेलेट गन का इस्तेमाल आम जनता पर कर रही थी. याद रखने वाली बात है की पेलेट गन का इस्तेमाल 2010 से कांग्रेस सर्कार द्वारा शुरू करा गया था.
उस ही सर्वे में ये भी पता चला की भारत के लोगो से जब पूछा गया की देश को बेहतर बनाने में कोनसे संसथान का सबसे ज़ादा योगदान है तो कोर्ट, पुलिस, सर्कार, एन.जी.ओ अदि से काफी ऊपर मिलिट्री अति है. हिंसा, मिलिटरीवाद, और कश्मीर के लोगो से दुरी और कई लोगो की नफरत आज की बात नहीं है और इसकी जड़ हिन्दुत्बा से गहरी जाती है – बल्कि “लिबरल” लोगो में भी आसानी से मिल जाती है.
क्यों 1990 से 2014 के बीच “लिबरल” भारत के और लोगों के बीच मिलिट्री और कश्मीर में हिंसा के बारे में लोगो की चेतना में बदलाव नहीं ला सके? क्या पता आने वाले दिनों में भी आम लोगो के बीच इन मुददों पर संघटित तरीके से लोगों की चेतना बदलने का काम कर पाएंगे या नहीं.
जादातर लोगों की सामाजिक चेतना लेक्चर हॉल और सेमिनार में नहीं बनती – जहाँ पहले से पढ़े लिखे और शोध में समय दे सकने वाले लोग आते हैं. रोज़मर्रा के सघर्षो, यूनियन गतिविधियों और कुछ गैर राजनैतिक प्लेटफॉर्म्स में ही लोगो के साथ इन मुददों पर समज विकसित करने का काम किया जा सकता है. जो की वो सभी लोग, जो समाज में गैरबराबरी और हिंसा का राज चाहते है, बखूबी कर रहे है.
नए इंस्टाग्राम लेफ़्टिस्ट्स में से कई लोगों का तो ये मानना है की जो लोग दुनिया में उनके जैसी सोच ले कर नहीं गिरे वो सब उनके दुश्मन है. जिसका मतलब जादातर मजदूर वर्ग भी क्यंकि उनमे से कुछ लोग भगवा स्कार्फ़ और माथे पर टिका लगा कर घूमने लगे है. जबकि ये दोनों बर्ताव एक ही सिक्के के दो पहलु है – अपने आप को एक नैतिक दृष्टि के गुट के हिस्से के रूप में दिखाना. जबतक हम इन लोगो से बात नहीं करेंगे और इनको अपना हिस्सा नहीं मानेंगे तबतक इस्थिति सिर्फ बत्तर होनी है.