वायरस: कोरोना और पूंजी

कोरोना वायरस से भारत में अब तक 4 लोगों की जान जा चुकी है – उनमे से 2 लोगों की जान इसलिये गई क्यंकि उन्हें प्राइवेट अस्पतालों ने भर्ती करने से मना कर दिया और वो भटक भटक कर हार गए. 17 मार्च को सरकारी मंत्रालयों ने प्राइवेट अस्पतालों से मुफ्त में कोरोना के जाँच करने का अनुरोध करा और प्राइवेट अस्पतालों के मालिकों ने मना कर दिया. प्राइवेट हस्पतालों में Rs. 5000 में जाँच हो रही है. भारत में स्वास्थ्य प्रणाली के नाम पर जादातर लोगों के लिए प्राइवेट बीमा ही उपलब्ध है. प्राइवेट बीमा कम्पनियों ने कहा है की अगर बीमा के कॉन्ट्रैक्ट में “महामारी” का ज़िक्र नहीं है तो कोरोना जाँच और इलाज के लिए पैसा नहीं मिलेगा. लेकिन उनका कहना है कि अगर कोई जीवन बीमा लेने के बाद कोरोना से मर जाए तो उसे हम पैसे ज़रूर देंगे.

लोगों की जान का ज़िम्मेदार, और लोगों की लड़ाई आज सिर्फ एक वायरस से नहीं है बल्कि जानलेवा पूंजीवाद से है. और पूंजीवाद के सिर्फ उस पक्ष से नहीं जिसके कारण एक स्वस्थ जीवन हमारा संवैधानिक और एक मौलिक मानव अधिकार भी हमें नहीं मिलता बल्कि, पूंजीवाद की जड़ से है जिसके कारण कोरोना आपदा से बड़ी आपदा इस देश और दुनिया में हमेशा बनी रहती है. ये आपदा आज नहीं आई है. ये हमारी आँखों के सामने शुरू से रही है और आगे भी लोगों की जान लेती रहेगी अगर हम मानव इतिहास के इस पल में भी न्यूनतम मानवता जगाने में असफल होते है तो.

लगभग 2 महीनो में कोरोना वायरस से भारत में 4 लोगों की जान गई. 2018 में 2080 लोगों की भारत में जलवायु आपदा के असर से जान जाने की रिपोर्ट है – हर महीने 175 मौत. कोरोना के कारण दुनिया भर में 3 महीनो में लगभग 10,000 लोगों की मौत हुई है. 2040 तक जलवायु आपदा के कारण कम से कम 4,50,000 की जान जाना तय है अगर जल्द ही ग्लोबल वार्मिंग को थामा नहीं गया तो. लेकिन इसको कैसे और क्यों रोका जाए जब 70% ग्लोबल वार्मिंग के लिए 100 बड़ी कंपनिया ज़िमेदार है? बिसनेस को नुक्सान ना हो इसलिए जनता का कर्फ्यू तक तो रविवार को रखा गया है – – ये 100 कंपनियों को नुकसान कैसे होने दें? मरते है 4 लाख लोग तो मरें.

जलवायु परिवर्तन जैसे संकट को पैदा करने के अलावा और भी रोज़मर्रा की आपदा पैदा करता है पूंजीवाद. भारत में हर साल लगभग 48,000 लोग काम पे मारे जाते है. ज़ादातक फैक्टरियों में और बिल्डिंग वगेरा बनाते समय मारे जाते है क्योंकि मजदूरों की सुरक्षा पे खर्चा अगर बढ़ेगा तो विदेशी कम्पनियाँ यहाँ पैसा नहीं लगाएगी. तो मरते है हर घंटे 6 मजदूर तो मरने दो – ये आपदा कोरोना जैसे अमीरो को नहीं लग सकती तो इसका टीवी पे क्यों ज़िक्र करें?

और कोरोना से ज्यादा घातक तो भारत में भारत की पुलिस है. हर साल पुलिस कस्टडी में 2000 लोग मारे जाते है – हर दिन 5! कोरोना को कुछ टिप्स दे सकती है भारत की पुलिस. और हर साल 100 से ज़ादा लोग भारत की फ़ौज की पाकिस्तान के गावों में शेल्लिंग से मारे जाते है – पाकिस्तान की शेल्लिंग से भारत में भी मारे जाते है, बेशक. लेकिन वो बेकसूर गाँव वालों ने ना पाकिस्तान को बोला था ना हिंदुस्तान को कि उनके आंगन में अपनी सरहद लेके आओ.

कोरोना पर वापस लौटते है. सरकार और हमारे देश की प्रणाली की क्या तैयारी है और कोरोना आपदा को रोकने में अब तक ये कितनी सफल रहे हैं? इस का फैसला करने के लिए पहले यह देखना होगा की ये किस प्रकार की आपदा है और ऐसी आपदा के लिए “अच्छी तैयारी” किसे माना जा सकता है.

क्या ये सिर्फ एक चिकित्सा सेवा का सवाल है – यानि की सिर्फ अलग अलग लोगों को एक बीमारी से कैसे बचाया जाए, मलेरिया या सर्दी खांसी के समान या फिर ये एक सार्वजनिक स्वास्थ्य का सवाल है? सार्वजनिक स्वास्थ्य से मेरा मतलब है राजय द्वारा पूरी आबादी के लिए स्वास्थ्य संबंधित सभी चीज़ों पर निगरानी और ज़रूरी पाबंदियों की व्यवस्था. मेरे ख्याल से शायद ही कोई हो जो इस बात से इंकार करे की ये एक सार्वजनिक स्वास्थ्य का सवाल है. इस हिसाब से हमारे देश की कैसी तैयारी है?

अस्पतालों में हर 1000 लोगों के लिए 1 से भी कम बिस्तर – क्यूबा में 5 से ऊपर और दुनिया का औसत 3. हर 1000 लोगों के लिए भारत में 0.8 डॉक्टर्स, क्यूबा में 8.2. हर 1000 लोगों के लिए भारत में 2.1 नर्स, क्यूबा 7.7. किस तरीके की नियंत्रण प्रणाली है हमारे देश में? सरकार निजी अस्पतालों में आपदा के वक़्त कुछ दिनों के लिए मुफ्त में जाँच भी ना करा सकी जबकि स्पेन ने कोरोना के चलते अपने सभी निजी हस्पतालों का राष्ट्रीयकरण कर दिया ताकि सबको मुफ्त और आसानी से इलाज मिल सके.

18 तारिक को कोटक महिंद्रा बैंक के मालिक ने दूसरे अरबपतियो से मीटिंग में कहा की बाजार में पैसे की कमी होने से नुक्सान होगा और 19 तारिक को आरबीआई ने Rs 10,000 करोड़ बाजार में डाल दिए. कौन किसको नियंत्रित करता है इस देश में ये शयद साफ़ है.

2018-2019 बजट में इंडिया ने स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय पर Rs 54,600 करोड़ खर्च करे और “सुरक्षा” – यानि सैन्यकरण पर Rs. 4,04,365 करोड़. शयद 3-4 नए लड़ाकू विमान से कोरोना को रोका जा सकता था?

सैन्यकरण को “सुरक्षा” बोला जाता है. जो 175 लोग जलवायु आपदा से हर महीने; हर घंटे काम पर 6 और पुलिस की बर्बरता से हर दिन 5 लोग मारे जाते हैं क्या ये उनकी सुरक्षा के लिए है? क्या इस देश के भूखे लोगों के लिए सुरक्षा परमाणु हतियार है या पेट में रोटी? जो राज्य देश में लोगों को डॉक्टर और बिस्तर ना मुहैया करा सके क्या उसको हतियारो पर करोड़ो रुपया बर्बाद करने का हक़ होना चाहिए?

परमाणु हत्यार से बड़ी सार्वजनिक स्वास्थ्य आपदा शायद ही मानव इतिहास में कभी पैदा हुई हो. कोरोना वायरस से जूझने के लिए एक कमज़ोर प्रणाली ही सही, कुछ तो है हमारे पास. लेकिन एक परमाणु विस्फोट का नतीजा होगा एक शहर के एक बार में 150 हस्पताल 2मिनट में धूल हो जाना. महीनो के लिए बिजली गायब हो जाना – जिसके बिना जो हस्पताल चल सकते है उनमें भी काम ठप हो जाना. खाना और पानी जहर हो जाना, सड़को पे बिल्डिंग के मलबे से यातायात ठप हो जाना. कोरोना के लक्षण तो खांसी और सर्दी के है – जो गिने चुने लोगों को परमाणु विस्फोट के बाद हस्पताल लाया जा सकेगा उनके लक्षण होंगे उनके शरीर का गलना, और आसपास की हर चीज़ को रेडिएशन से जहरीला बना देना.

और ये तो उस समय की बात है जब बड़ी जंग नहीं होगी और कुछ ही परमाणु हतियारो का इस्तेमाल होगा. अगर भारी मात्रा में यह इस्तेमाल हुए तो वो मानव सभ्यता का अंत होगा. और यह कोई काल्पनिक बात नहीं है. आज भारत के पास 140 परमाडू हतियार है और 120 पाकिस्तान के पास. और नए और आसानी से इस्तेमाल किये जाने वाले हतियार और लॉन्चेर्स दोनों देश बना चुके है और कई बार तैनात भी कर चुके हैं. एक और तनाव की इस्थिति और एक और हिसाब में गलती की कीमत करोड़ों जान होगी.

ये है आज के भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य का हिसाब. कंपनियों के मुनाफा खोरी के कारन मुफ़्त में ईलाज नहीं हो सकता और ऐसे कानून नहीं बनाए जा सकते जिससे मजदूर काम पे सुरक्षित काम कर सकें और सब खुली हवा में सांस ले सकें. राज्य अपनी हुकूमत बनाए रखने के लिए मानव सभ्यता को रोज़ दाव पर लगा रहा है. लेकिन गलती कुछ हद तक हमारी है. अकेले घर में बैठ कर कोरोना से बचने के लिए हम सब राज़ी है लेकिन एकजुट होके सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए लड़ने को नहीं. लेकिन इसको बदला जा सकता है. हम अपनी सुविधा और डर के चलते जीवन को विलुप्त होने देंगे या फिर कोरोना के अनुभव से सीख कर असली सुरक्षा की लड़ाई में शामिल होंगे. विकल्प हमारे पास है – पर ज़ादा समय के लिए नहीं.

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